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आखिर नारी विवश क्यों ?

नारी हमारे समाज की आधार भूत स्तम्भ है फिर भी आज समाज में हर जगह लोग नारी का ही शोषण करते हैं। पुरुष यह नहीं समझते कि वह जो भी हैं ये उन्हीं की देन है। अगर आज नारी न होती तो पुरुषों का अस्तित्व न होता। नारी हर रूप में देखने को मिलती है, कहीं वही नारी मां, बहन, भाभी, दादी, चाची, किसी की पत्नी, बेटी बनकर रहती है। नारी के बिना तो भगवान भी अछूते हैं। सारे संसार की सृष्टि नारी के हाथों में है। पुरुष प्रधान देश जो सिर्फ नारी को अपने पैरों के नीचे रखने को आदि हो गए। वे समझ नहीं पाते हैं नारी के कारण ही रामायण या महाभारत उत्पन्न हुआ। रावण (जो की  पुरुष था) सीता को हर कर ले गया, ये भी नारी द्वारा उत्पन्न रामायण की कहानी है। जनसमुदाय नारी और पुरुषों दोनों से बना है फिर भी नारी को कमजोर एवं दुर्बल समझा जाता है। जब-जब धरती पर पुरुषों का अत्याचार बढ़ने लगता है और स्वार्थ की प्रवृति से समाज पतन की गर्त में गिरने लगता है तो नारी की ममतामर्य करुणा विभूषित होने लगती है। मानवता पर दानवता स्वार हो जाती है तो त्राहिमान-त्राहिमान की करुण स्वर से दशाएं कापने लगती है। ऐसी स्थिति में समाज एवं शासन सत्ता पथ सत्तारूढ़ करने के लिए किसी भी औरत को आगे आना पड़ता है, लेकिन दानवमयी समाज में वह जकड़ जाती है। नारी जो देश को चला सकती है फिर भी उसको पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है। क्योंकि वह विवश है। वे अपने परिवार, समाज द्वारा ऐसा करने पर मजबूर है। नारी के पैदा होते ही उसको नारी होने का याद दिलाया जाता है कि बचपन में माता-पिता का अधिनता, बड़े हाने पर पति की अधिनता तथा वृद्ध होने पर पुत्र की अधीनता होती है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि उनको जो जन्म दिया वह एक औरत है जिसके अधीन वे समाज में खड़े होने के काबिल है। आज दहेज प्रथा की बढ़ती प्रवत्ति से अलग होना नामूमकिन है। औरत तो विवश है उसे अपने परिवार की मान मर्यादा का ख्याल रखना पड़ता है। पुरुष तो औरतों से ज्यादा ही विवश है। क्योंकि उसे औरतों के लिए उनके मुताबिक दामों में खरीदा जाता है। नारी तेरी रूप अनेक वाले कहावत चरितार्थ हर जगह मिलती है। कही यही औरत शादी के वक्त चुन्द्रमुखी, उसके बाद सूर्यमुखी तथा उनके आतंरिक प्रवृति से ज्वालामुखी बन जाती है। नारी की विवशता के कारण उनको पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ा है। वैदिक काल में स्त्रियों को अपने अधिकार की स्वतंत्रा थी। मगर आज सारा समाज शिक्षित है, वहीं औरत को कर्म से विमुक्त होना आक्रमण का निर्माण प्राप्त करना उन्हें व्यर्थ की दलील लगती है। वे ये भूल जाते हैं कि प्रकृति की नियमों को कोई टाल नहीं सकता है। जैसे जब सूर्य और चांद के उदय और अस्त का नियम है तो फिर मनुष्य (पुरुष) भी क्यों स्वीकृत अधिकार की कामना करता है। संसार में सुख और दुख दोनों है। यदि सुख को कभी मूल नहीं माना जाता है यदि दुख न होता। ठीक उसी तरह औरत के बिना पुरुष अधूरा है। तो नारी को विवश क्यों करता है। नारी वह है जो पुरुष नहीं हो सकता। नारी अगर
                     "फूलों के लिए पानी है तो 
                       शूलों के लिए आग 
                       असूरों के लिए चंडी है तो 
                       बच्चों के लिए ममता की खान।।''
                                           नारी की यह स्थिति है कि वह समाज और कतर्व्य की बलिदेवी पर चढ़ती आई है। यह क्रम कोई नया नहीं है यह तो युगों से होता आया है। पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी की जो दुर्गति होती है, ज्वलत उदाहरण है सीता जिसे पवित्रता साबित करने के लिए जीवित धरती में समा जाना पड़ा। नारी के लिए उनकी सामाजिक मर्यादायें है। नारी तो नियमों, बंधनों और रीतियों की जेल में कैद रहती है। उनके लिए स्वतंत्रता तो एक स्वप्न है। यही तो हमारा समाज है, जहां पुरुषों को हर तरह की छूट है, नारी तो नियमों की दासी है। उसकी तमन्नाओं का हमेशा खून होता रहता है और नारी तो हमेशा समाज द्वारा प्रताड़ित की गई है, लेकिन धीरे-धीरे उसकी विचार बदलते हैं तब वह यह निष्कर्ष पर आती है कि "चांदी का जला तो किसी का सिर फोड़ सकता है, लेकिन जब आभूषणों के नियमों, सांचों के अनुरूप वह चोट सहता है तब तो शोभा और श्रृंगार को बढ़ाने वाली चीज बन जाता है। ठीक इसी तरह नारी भी सामाजिक बंधनों और नियमों की चोट खाकर जब अपनी पूर्णता सारी सृष्टी, सम्पूर्ण संसार को अपनी तस्वीर के रूप में प्राप्त करती है तो पुरुष सोचने पर विवश हो जाते हैं कि यह वही नारी है जो कभी हमारी दासी थी। वे भूल जाते हैं कि हल्की सी खरोंच भी, यदि उस पर तत्काल दवाई न लगा दी जाय, तो बढ़कर एक बड़ा घाव बन जाती है और वहीं घाव नासूर हो जाता, फिर लाख मरहम लगाओ, ठीक नहीं होता।
      पुरुष को यह स्वीकार कर लेनी चाहिए कि सम्पूर्ण सत्ता उसकी हाथों में नहीं होनी, बल्कि जितनी हक उनकी है उतनी नारी की। क्योंकि नारी मानव जाति की जननी और दो पीढ़ियों को जोड़ने वाली एक कड़ी है, जो समाज में सम्मान तुल्य होनी चाहिए। यह एक कड़वा सत्य है जिसे पुरुषों को स्वीकारना होगा। इससे उनकी एवं सम्पूर्ण समाज की भलाई इसी में है।
                                                      नारी जागो एक बार 
                                                      बुद्धि-बुद्धि में हो लीन
                                                      मन मन में, जी-जी में
                                                      एक अनुभव बहती रहे
                                                      उभय आत्माओं में 
                                                      कब से मैं रही पुकार 
                                                      जागो फिर एक बार 
                                                      नारी तुम हो महान ।।

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