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बेबसता की छलक....


हट साले ...रोज-रोज चला आता है भिख मांगने ।
तेरे मां-बाप नहीं है क्या? वह चिढ़ते हुए कहा। हर दिन हराम की कमाई खाने की आदत है साले को। ऐसे लोगों की न जात का पता होता है न घरवाले का! ऐ तो अपने जन्म का भेग रहे हैं। ऐसे कहने वाले वही साहब थे जो हर रोज स्टेशन पर दोस्तों की महफिल लगाए रहते थे। उनकी नजरें हर उस सुंदर लोगों पर रहता था जो देखने में .... ये तो आप समझ सकते हैं। इतने में वहां चार-पांच बच्चे उनकी पांव छूकर कहने लगे मार्ई-बाप पैसे दे दो, खाने को कुछ भी नहीं है। उनमें से किसी ने कहा, क्यूं तेरी मां भाग गई क्या? बेबसता की छलक उसकी आंखों में साफ दिखाई दे रहा था। मगर वे क्या करते समाज के मारे थे।  कुछ ही दूरी पर खड़ी बेजान सी महिला लड़खड़ाते चली आ रही थी, उसकी कपड़े बिखड़े, बाल फैले पड़े थे। उसकी आंखों की नीचे स्याह काले घेरे थे। देख कर जैसे लग रहा था कि उसका कोई अपना खो गया या उसके साथ कुछ हो या है। उसकी एक ही रट थी बाबू जी कुछ दे दो ! बाबू जी कुछ दे दो !  कुछ लोग उसकी लाचारी को देख मजाक कर रहे थे। कही गई होगी! फिफरे के साथ मजे रहे लोगों के बीच एक भला इनसान बुदबुदाया। अजीब कूढ़मगज लोग है मजे ले रहे हैं। लेकिन वह लाचार था। ज्यादा कुछ कहता तो लोग कहते ईमानदारी और सहिष्णुता का घुटी पिलाने आया है।

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4 Comments

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